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बालक का बलिदान - Vikram Betaal Ki Kahani




राजा विक्रमादित्य फिर से शमशान में वापस लौटे . शव को पेड़ से निचे उतारा और उसे कंधे पर लाद कर चुपचाप चल पड़े . कुछ समय बाद शव में निवास करने वाला बेताल बोला - " राजन , आपका दृढ़ संकल्प और कष्ट सहने की शक्ति देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है . हो सकता है आप वचनबद्ध हों और उसी वचन का पालन करने का प्रयास में इतने कष्ट झेल रहे हो . मेरी भी यही मान्यता है कि मनुष्य को अपने दिए हुए वचन और देवता द्वारा दिए गए किसी वरदान को वापस नहीं लेना चाहिए . बहरहाल , अब मैं आपकी थकान भुलाने के लिए एक कहानी सुना रहा हूं . उसे सुनिए और अपने श्रम की थकान भुलाने की कोशिश कीजिए . "

यह कहकर बेताल ने विक्रमादित्य को यह कहानी सुनाई -
बहुत समय पहले चित्रकूट नगरी में  चंद्रावलोकन नाम का एक राजा राज्य करता था . समस्त सुख-सुविधाओं और संपत्तियों के रहने पर भी राजा के मन में एक ही चिंता थी - उसे अपने योग्य पत्नी नहीं मिल रही थी .

एक दिन वह अपने मन का द्वेष मिटने के लिए अपने अनुचरों के साथ जंगल में शिकार खेलने गया . पशुओं का पीछा करते हुए राजा ने अकेले ही वन (जंगल) का भीतरी भाग देखने की इच्छा से एड़ी की कड़ी चोटी मर कर घोड़े को आगे बढ़ाया . एड़ी की चोट और चाबुक की फटकार से घोड़ा उत्तेजित हो गया और वह वायुवेग से दौड़ता हुआ , क्षण-भर में दस योजन की दुरी तय करके राजा को दुसरे वन में ले गया . वहां पहुँच कर घोड़ा रुका , तब राजा को दिशा-भ्रम हो गया . ताका हुआ राजा जब इधर-उधर भटक रहा था , तभी उसकी नजर एक सरोवर पर पड़ी . वहां जाकर वह घोड़े से उतारा और घोड़े को पानी पिलाकर खुद पानी पिया . फिर थकान मिटने के लिए एक पेड़ के निचे बैठकर इधर-उधर देखने लगा .

तभी उसकी नजर अशोक वृक्ष के निचे अपनी सखी के साथ बैठी एक मुनिकन्य पर पड़ी . उसका सौन्दर्य देखकर कामदेव के बाणों से घायल होकर राजा सोचने लगा - ' यह कौन है ? क्या यह सावित्री है , जो सरोवर में स्नान करने आई हुई है ? या शिव की गोद से छुटी पर्वती है . ' यह सोचकर राजा उसके पास गया .

उस कन्या ने भी राजा को देखा , तब उसके रूप से उसकी आँखों में चकाचौंध भर गई . वह सोचने लगी - ' इस वन में आने वाला ये कौन है ? कोई सिद्ध है या विद्याधर ? इसका रूप तो संसार की आँखों को कृतार्थ करने वाला है . ' मन ही मन ऐसा सोचकर और लज्जा के कारण तिरछी नजरों से राजा को देखती हुई वह वहां से जाने लगी .

तब राजा आगे बढ़कर उसके पास गया और बोला - ' सुन्दरी , जो आदमी दूर से आया है जिसे तुमने पहली बार देखा है और जो केवल तुम्हारा दर्शन मात्र चाहता है , उसके स्वागत-सत्कार का तुम आश्रमवासियों का यह कैसा ढंग है कि तुम उससे दूर भागी जा रही हो ?'

राजा की बात सुनकर उसकी सखी ने उसे वहां बिठाया और उसका स्वागत-सत्कार किया . तब उत्सुक राजा ने उससे प्रीतिपूर्वक पूछा - ' तुम्हारी इस सखी ने किस पुण्यवान वंश को अलंकृत किया है ? इसके नाम के वे कौन से अक्षर है , जो कानों में अमृत उड़ेलते हैं ? और इस निर्जन वन में , पुष्प के समान कोमल अपने शरीर को तपस्वियों की तरह क्यों कष्ट दे रही है ? '

यह सुनकर उसकी सखी बोली - ' यह महर्षि कंव की पुत्री है . इसका नाम इन्द्रीवर प्रभा है . पिता की आज्ञा से यह इस सरोवर में स्नान करने के लिए आई है . इसके पिता का आश्रम भी यहाँ से बहुत दूर नहीं है . '

यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घोड़े पर सवार होकर उस कन्या को मांगने के लिए ऋषि कंव की आश्रम की ओर चल पड़ा . आश्रम में पहुँच कर उसने मुनि के चरणों की वंदना की . मुनि ने भी उनका अतिथ्य किया फिर उस ज्ञानी मुनि ने कहा - ' वत्स , चंद्रावलोकन.... तुम्हारे हित की यह जो बात मैं कहता हूं , उसे ध्यान से सुनो . संसार में प्राणियों को मृत्यु से जैसा भय है , वह तो तुम जानते ही हो , फिर अकारण ही तुम इन बेचारे मृगों की हत्या क्यों करते हो ? विधाता ने डरे हुओं की रक्षा के लिए क्षत्रिय के शस्त्र का निर्माण किया है .

अत: तुम धर्म स प्रजा की रक्षा करो , शत्रुओं का नाश करो . राज्य-सुख भोगो , धन का दान करो और दिशाओं में अपना यश फैलाओ . काल की क्रीड़ा के समन हिंसक मृगया के इस व्यसन को छोड़ दो , क्योंकि अनेक अनथों वाली उस मृगया से क्या लाभ , जो मरने वाले , मरने वाले और दूसरों के लिए भी प्रमाद का कारण है . क्या तुमने राजा पांडू का वृतांत नहीं सुना ?

कंव मुनि की ये बातें सुनकर राजा उनका सम्मान करते हुए बोला - ' मुनिवर , आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया कि मुझे यह शिक्षा दी . मैं मृगया का व्यसन छोड़ता हूं . सब प्राणी अब निर्भय हो जाएँ . '

यह सुनकर मुनि ने कहा - ' तुमने प्राणियों को जो यह अभयवचन दिया , इसमें मैं संतुष्ट हो गया . अत: इच्छित वर मांगो . '

राजा ने कहा - ' मुनिवर , यदि आप मुझ पर प्रसन्न है , तो अपनी कन्या इन्द्रीवरप्रभा को मुझे दे दें . '

राजा के इस प्रकार याचना करने पर मुनि ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया . फिर राजा मुनिकन्य इन्द्रीवरप्रभा को अपने घोड़े पर बिठा कर अपने नगर की ओर चल पड़े , चलते-चलते उन्हें रात हो गई . एक तालाब के किनारे राजा ने एक पीपल का वृक्ष देखा . उसकी शकों और पत्तों के समूह से ढकी हुई तथा हारी दुबवाली उस जगह को देखकर राजा ने मन में सोचा कि मैं रात यहीं बिताऊंगा . यह सोचकर वह घोड़े से उतरा और अपनी पत्नी मुनिकन्य के साथ उसी वृक्ष के निचे डूब की हारी शायया पर सो गया . इस प्रकार , राजा ने इन्द्रीवर प्रभा के साथ रात्रिक्रीड़ा का आनन्द लेते हुए वह रात एक क्षण के समान बिता दी .

सवेरे होने राजा ने शायया का त्याग किया . संध्या-वंदन से निबटकर और अपनी पत्नी को साथ लेकर वह अपनी सेना से मिलने के लिए आगे बढ़ने लगे . तभी अचानक ही एक ब्रह्मराक्षस वहा आ पहुंचा और क्रोधित होकर राजा से बोला - ' अरे नीच , मैं ज्वालामुखी नाम का राक्षस हूं . पीपल का यह वृक्ष मेरा निवास-स्थान है . देवता भी इसकी अवमानना नहीं कर सकते . मैं रात को जब घुमने-फिरने गया था , तो तूने इस जगह पर हमला किया और स्त्री सहित यहाँ रात बिताई . अब तू अपने इस अविनय का फल भोग . अरे दुराचारी , वासना से तेरी सुध-बुध जाती रही . मैं तेरा ह्रदय निकाल कर खा जाऊंगा और तेरा खून पि जाऊंगा . '

राजा विनयपूर्वक बोले - ' अनजाने में मुझसे यह अपराध हो गया . मुझे क्षमा कर दें . मैं आपको मनचाहा मनुष्य या पशु लाकर दूंगा , जिससे आपकी तृप्ति हो जाएगी . अत: क्रोध त्याग कर आप प्रसन्न हों . '

राजा की बात सुनकर ब्रह्मराक्षस शांत हो गया . उसने मन में सोचा , ' चलो इसमें हानी ही क्या है . ' यह सोचकर उसने कहा - ' ऐसे पुत्र की भेंट दो , जो सात वर्ष का होने पर भी वीर हो , विवेकी हो और अपनी इच्छा से तुम्हारे लिए अपने को दे सके और जब वह मारा जाए , तो भूमि पर डालकर उसकी माता उसके हाथ और पिता उसके पांव मजबूती से पकड़े रहें तथा तलवार के प्रहार से तुम्ही उसे मरो , तो मैं तुम्हारे इस अविनय को क्षमा कर दूंगा . नहीं तो राजन , मैं शीघ्र ही तुम्हारे लाव-लश्कर के साथ तुम्हे मर डालूँगा . '

भय के कारण राजा ने उसकी बात मान ली . बोला - ' ठीक है , ऐसा ही होगा . ' यह कहकर राजा इन्द्रीवर प्रभा के साथ घोड़े पर सवार होकर , अपनी सेना को ढूंढता हुआ वहा से चल पड़ा , लेकिन उसका मन बड़ा उदास था . वह सोचने लगा - ' हाय , मैं कैसा वावला हूं . आखेट और काम से मोहित होकर सहसा ही , पांडू के समान , विनाश को प्राप्त हुआ हूं . भला मुझे ब्रह्मराक्षस के लिए वैसा उपहार कहां मिलेगा ? मैं अपने नगर को ही चलता हूं और देखूं कि ऐसा होनहार कौन है ? ' वह यह सोचता जा रहा था कि उसकी सेना उसे ढूंढती हुई उससे आ मिली . अब वह अपनी सेना और पत्नी के साथ अपने नगर चित्रकूट आ गया .

राजा को अनुकूल अप्तनी मिली थी , यह देखकर राजधानी में उत्सव मनाया गया लेकिन मन का दुख मन में ही दबाए राजा ने बाकि दिन बिता दिए . अगले दिन एकांत में , उसने अपने मंत्रियों से सारा वृतान्न्त कह सुनाया , यह सुनकर उनमे से सुमित नाम का एक मंत्री बोला - ' महाराज , आप चिंता न करें . मैं ढूंढ कर वैसा उपहार ला दूंगा , क्योंकि धरती अनेक आश्चर्यों से भरी है . '

इस प्रकार राजा को आश्वासन देकर मंत्री ने शीघ्र ही सात वर्ष की आयु वाले बालक की  सोने की मूर्ति बनवाई . उसने मूर्ति को रत्नों से सजाकर एक पालकी पर बिठा दिया . वह पालकी इस घोषणा के साथ नगरों , गाँवों और चरागाहों में जहाँ-तहां घुमाई गई . मंत्री के द्वारा उसके आगे-आगे ढिंढोरा पीटकर लगातार यह घोषणा की जा रही थी - सात वर्ष का जो ब्राह्मण पुत्र , समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए अपनी इच्छा से अपना शरीर ब्रहमराक्षस को सौंपेगा और इस कार्य के लिए न केवल अपने माता-पिता की अनुमति ही ले लेगा , बल्कि जब वह मारा जाएगा , तब खुद उसके माता-पिता उसके हाथ-पैर पकड़े रहेंगे , अपने माता-पिता की भलाई चाहने वाले ऐसे बालक को राजा सौ गाँवों के साथ , यह सोने और रत्नों वाली मूर्ति दे देंगे . '

यह घोषणा एक सात वर्ष के ब्राह्मण बालक ने सुनी . वह बालक बड़ा वीर और अदभुद आकृति वाला था . पूर्वजन्म के अभ्यास से वह वचन में भी सदा परोपकार में ही लगा रहता था . ऐसा जान पड़ता था , मानो प्रजा के पूण्य-फल ने ही उसके रूप में शरीर धारण कर रखा हो . वह ढिंढोरा पीटने वालों के पास जाकर बोला - ' आप लोगों के लिए मैं अपने को अर्पित करूँगा . मैं अपने माता-पिता को समझा-बुझा कर अभी आता हूं . '

उसकी बात सुनकर ढिढोरा पीटने वाले पप्रसन्न हुए . उन्होंने उसे अनुमति दे दी . घर जाकर बालक ने हाथ जोड़कर अपने माता-पिता से कहा - ' समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए मैं अपना यह नश्वर शरीर दे रहा हूं , अत: आप लोग मुझे आज्ञा दें और इस प्रकार अपनी दरिद्रता को भी दूर करें . इसके लिए राजा सौ गांवों सहित सोने की रत्नों वाली मेरी यह मूर्ति मुझे देंगे , जिसे मैं आप लोगों को सौंप दूंगा . इस प्रकार , मैं आप लोगों से भी उऋण हो जाऊंगा और पराया कार्य भी सिद्ध कर सकूँगा . दरिद्रता से छुटकारा पाकर आप लोग भी अनेक पुत्र प्राप्त कर सकेंगे . '

पुत्र की ऐसी बात सुनकर माता-पिता ने कहा - ' बेटा , क्या तू पागल हो गया है ? अथवा तुम्हे ग्रह-बाधा उत्पन्न हो गई है ? क्योंकि ऐसा न होता , तो फिर तू ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करता ? भला धन के लिए कौन अपने पुत्र की हत्या करना चाहेगा और कौन बालक ही अपना शरीर देना चाहेगा . '

माता-पिता की बात सुनकर बालक बोला - ' मेरी बुद्धि नहीं मारी गई कि मैं बकवास करूँ . आप मेरी अर्थयुक्त बातें सुनें - ' यह शरीर ऐसी अपवित्र वस्तुओं से भरा है , जिन्हें कहा नहीं जा सकता . जन्म से ही यह जुगुसीपत है , दुख का घर है और शीघ्र ही इसे नष्ट हो जाना है . इसलिए बुद्धिमान लोगों का कहना है कि इस अत्यंत असार शरीर से संसार में जितना भी पूण्य अर्जित किया जा सके , वही सार वस्तु है . समस्त प्राणियों का उपकार करने से बढ़कर बड़ा पूण्य और क्या हो सकता है और उसमें भी अगर माता-पिता की भक्ति हो , तो देह-धारण करने का उससे अधिक फल और क्या होगा ? '
यह कहकर उस दृढ़-निश्चयी बालक ने शोक करते हुए अपने माता-पिता से अपनी मनचाही बात स्वीकार करवा ली .

फिर , वह राजा के सेवकों के पास गया और सुवर्ण-मूर्ति तथा उसके साथ सौ गांवों का दान-पत्र लाकर अपने माता-पिता को दे दिया . इसके बाद उन राजसेवकों को आगे करके , अपने माता-पिता के साथ राजा चित्रकूट की और चल पड़ा . चित्रकूट पहुंचकर जब राजा चन्द्रावलोकन के अखंडित तेज वाले उस बालक को देखा तो वे बड़े प्रसन्न हुए . वे समझ गए कि उस बालक के रूप में उनकी रक्षा करने वाला रत्न आ पहुंचा है .

राजा ने फूलों और चन्दन के लेप से उस बालक को सजाया और उसे हाथी की पीठ पर बिठाकर , उसके माता-पिता के साथ लेकर ब्रहमराक्षस के पास चल दिया . यहाँ पहुंचकर राजा ने पीपल के वृक्ष के निचे वेदी बनाकर जैसे ही अग्नि में आहुति डाली , त्यों ही अट्टहास करता हुआ राक्षस वहां प्रकट हो गया . उसे देखकर राजा ने नम्रतापूर्वक कहा - ' राक्षसराज , आज मेरी प्रतिज्ञा जा सातवां दिन है . अपने वायदे के मुताबिक मैं यह मानव-उपहार आपके लिए ले आया हूं . अत: आप प्रसन्न होकर विधिपुँर्वक इसे ग्रहण करें . '

राजा के इस प्रकार निवेदन करने पर ब्रह्मराक्षस ने अपनी जीभ से होंठों के दोनों किनारों को चाटते हुए ब्राह्मण-पुत्र को देखा . उसी समय उस महापराक्रमी बालक ने प्रसन्न होते हुए सोचा कि इस प्रकार अपने शरीर का दान करके मैंने जो पूण्य अर्जित किया है , उससे मुझे ऐसा स्वर्ग अथवा मोक्ष न मिले , जिससे दूसरों का अपकार नहीं होता , बल्कि जन्म-जन्मान्तर में मेरा यह शरीर परोपकार के काम आए . जैसे ही उसने मन में यह बातें सोचीं , त्यों ही क्षण भर में , फुल बरसाते हुए देव समूह के विमानों से आकाश भर गया .

फिर उस बालक को ब्रह्मराक्षस के सम्मुख लाया गया . मान ने उसके हाथ पकड़े , पिता ने पैर . इसके बाद राजा ज्यों हो तलवार उठाकर उसे मरने चला , त्यों ही उस बालक ने ऐसा अट्टहास किया कि ब्रहमराक्षस सहित सब लोग विस्मय में पड़ गए . वे अपना-अपना काम छोड़कर तथा सिर झुकाकर उस बालक का मुख देखने लगे .

इस प्रकार या विचित्र कथा सुनाकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से कहा - ' राजन , प्राणान्त के ऐसे समय में भी जो वह बालक हंस पड़ा इसका करण क्या है , मुझे इस बात का बड़ा कौतूहल है . अत: जानते हुए भी यदि आपने इसका कारण नहीं बताया , तो आपका मस्तक सौ टुकड़ों में फट जाएगा .

आखिर राजा विक्रमादित्य को अपना मौन तोड़ना पड़ा . वे बोल पड़े - ' बेताल , मैं तुम्हे उस बालक के हंसने का कारण बताता हूं . सुनो जो प्राणी दुर्बल होता है , वह भय के उपस्थित होने पर प्राणों की रक्षा के लिए अपने माता-पिता को पुकारता है . उनके न होने पर वह राजा को पुकारता है , क्योंकि आर्त्त्जनो की रक्षा के लिए राजा बनाए जाते है . यदि उसे राजा का भी सहारा नहीं मिलता तो फिर वह अपने कुलदेवता का स्मरण करता है . उस बालक के लिए तो सभी वहां उपस्थित थे , लेकिन सब के सब प्रतिकूल हो गए थे . माता-पिता ने धन के लोभ से उसके हाथ-पैर पकड़ रखे थे , राजा अपने प्राणों की रक्षा के लिए खुद उसका वध करने को उग्गत था और वहां देवता के रूप में जो ब्रहमराक्षस था , वही उसका भक्षक था .
जो शरीर नश्वर है , जिसका अंत कड़वा है tatहा जो अधिक व्याधि से जर्जर है , उसके लिए भी उन मूढ़ मति वाले लोगों की ऐसी विडम्बना देखकर उसे आश्चर्य हुआ . जिस शरीर में ब्रह्मा , विष्णु , इंद्र और शंकर का निवास होता है , वे भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं और उसी शरीर को स्थिर बनाए रखने की इन सब में कैसे विचित्र वासना है . वह बालक उन लोगों की देह-ममता की यह विचित्रता देखकर अचरज में पड़ा और अपनी अभिलाषा को पूर्ण जाकर प्रसन्न हुआ और इसी आश्चर्य और प्रसन्नता में वह हंस पड़ा . '

यश सुनकर बेताल बोला - ' राजन , आपने बिलकुल सही कहा लेकिन आप बोल पड़े , इसलिए मैं जा रहा हूं .

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