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संस्कार और उनसे मुक्ति - Sacrifice and liberation from them, in Hindi




[caption id="" align="aligncenter" width="497"]संस्कार और उनसे मुक्ति - Sacrifice and liberation from them, in Hindi संस्कार और उनसे मुक्ति - Sacrifice and liberation from them, in Hindi[/caption]


गुरु नानक (Guru Nanak) साहब के जीवन (life) का एक प्रसंग (story) है. एक बार गुरु नानक साहब अपने शिष्यों (disciples) के साथ कहीं यात्रा (travelling) पर जा रहे थे. रास्ते में सब लोगों ने देखा कि एक दुकान (shop) के आगे अनाज का ढेर पड़ा हुआ है. एक बकरा (goat) उनमें से कुछ खाने की कोशिश (try) कर रहा है और एक लड़का उस बकरे को डंडे मारकर भगा रहा है.

नानक साहब यह देख कर हस (smiling) पड़े. थोड़ी दूर जाने पर उनके शिष्यों (disciples) में से एक बोला कि भगवन (god) मैंने तो सुना था कि संत (sage) दूसरों के दुख में दुखी होते हैं परन्तु (but) आप तो बकरे को पिटता (beaten) देखकर हँसे (laughed), इसमें कोई राज (secret) होगा. कृपया समझायें. नानक साहब बोले कि देखो वह जो बकरा था किसी समय (time) इस दुकान (shop) का मालिक (owner) था. इस लड़के का पिता (father) था जो इस समय पिट रहा है अपने पुत्र (son) के हाथ.

फिर उन्होंने बताया कि देखो मनुष्य (human) जो कर्म करता है उसका संस्कार (impression) बनता है. उन संस्कारों के अनुसार ही हमारी अगली योनी (next birth) तय होती है. किस योनी में हम जन्म लेंगे, यह उसी पर निर्भर (depend) करता है कि हमने कैसे कर्म किए और उसके संस्कार कैसे हुए. उन संस्कारो के कारण वह बनिया एक दुकान का मालिक था बकरा (goat) बन गया. परन्तु अन्त (end) समय उसकी वृत्ति (instinct) इसी दुकान में लगी हुई थी, इसी कारण उसका जन्म (birth) यहीं हुआ. अब यह बकरा यह तो नहीं जानता कि मुझे यहाँ अच्छा क्यों लगता है परन्तु (but) रहता इस दुकान के आसपास ही है.

भूख (hungry) लगती है तो इसी अनाज को खाने की कोशिश (try) करता है और पिटता भी है परन्तु (but) रात को उसी वरांडे में उसी जगह बैठता है जहाँ वह बनिया बैठता था. यह हमारे संकरों का फल (result) होता है. सच पूछिए तो मनुष्य योनी कर्मयोनी है और जो हम कर्म करेंगे उससे संस्कार भी बनेंगे और संस्कार बनेंगे तो जन्म-मरण का जो चक्कर (birth death cycle) है वह लगा ही रहेगा. इन्ही संस्कारों के चक्कर के कारण हम चौरासी लाख (84 lakh) योनियों में घूमते रहते हैं.

अब समझने की बात यह है कि ऐसा क्या करना चाहिए जिससे कम से कम संस्कार आगे न बने. जो बन गये उसको तो भुगतना (suffer) ही पड़ेगा. इसके बारे में कबीर साहब एक भजन में समझते हैं - यह चादर झीनी रे झीनी. देखिए सफेद चादर (white sheet) अगर हो तो उस पर चाहे हम गुलाब का इत्र (perfume) छिड़क दें या गीली मिट्टी छिड़क दें दोनों में चादर गन्दी (dirty) होती है. इसी प्रकार हमारे संस्कार चाहे पुण्य कर्मों के हों चाहें पाप कर्मों के दोनों ही हमारे चादर गन्दी (dirty) करते हैं, संस्कार बनाते हैं, जन्म-मरण के चक्कर में डाले रहते हैं.

कबीर साहब इस भजन में अंतिम लाइन (line) जो कही है वह विचारने (thinkable) लायक है. वे कहते हैं -
" जो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मेली किन्हीं,
दस कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों घर दीन्हीं . "

सुर यानि देवता (god) वह होते हैं जो अपने पिछले पूण्य कर्मो को भोग रहे हैं, उन्होंने कभी अच्छे कर्म किये थे इसी कारण वह इस जन्म (birth) में देवता बने और उसका भोग कर रहे हैं. मुनि (saint) वह होते हैं जो इस जन्म में पूण्य कर्म (good work) करते हैं और नर वह होते हैं जो पूण्य और पाप दोनों कर्म करते हैं.

इन तीनों के ही संस्कार बन रहे हैं. तीनों की ही चादर गन्दी हो रही है. अब कबीर दास ने ऐसा क्या किया कि जतन (saved) से ऐसी रख दी जैसी आई. यानि वह चादर गन्दी नहीं हुई. इसके दो मुख्य उपाय हैं - कर्म तो हम करेंगे ही परन्तु (but) कर्म भगवान या गुरु का समझकर किया जाय तो उसका संस्कार नहीं बनता.

 

इसके बारे में नारद पुराण में एक प्रसंग (incident) आया है कि नारदजी एक बार नारायण-नारायण कहते हुए स्वर्ग लोक (heaven) पहुंचे भगवान विष्णु (Lord Vishnu) के पास. वहां देखा कि भगवान विष्णु के महल (palace) के बगल में ही एक दूसरा उससे भी अच्छा महल (palace) बन रहा है.

उन्होंने जिज्ञासा पूर्वक (curiously) कहा कि भगवान यह महल (palace) किसके लिए बन रहा है ? भगवान विष्णु मुस्कुराकर बोले कि मेरा एक भक्त (devotee) मृत्युलोक (earth) से आने वाला है उसके लिए यह महल (palace) बन रहा है. नारदजी तो अपने ही को बहुत बड़ा भक्त (devotee) समझते थे. वह समझते थे कि मैं तो हर समय भगवान का नाम लेता हूं, मुझसे बड़ा भक्त (devotee) कहां से आ गया.

उन्होंने पूछा - भगवन उसका पता (address) बता दें, मैं उसको देखने जाना चाहता हूं. भगवान विष्णु ने कहा कि देखो वहां एक किसान (farmer) रहता है. वह ही मेरा परम भक्त (supreme devotee) है. नारदजी उस किसान (farmer) के यहाँ गये, तीन दिन वहाँ रहे और देखा कि सारे दिन किसान व्यस्त (busy) रहता है एक मिनट भी खाली (free) नहीं रहता और रात में केवल सोते वक़्त (sleeping time) एक बार भगवान का नाम लेता है.

तीन दिन रहने के बाद नारदजी से रहा नहीं गया उन्होंने किसान (farmer) से पूछा कि तुम भगवान का नाम केवल (only) एक ही बार क्यों लेते हो ? किसान (farmer) बोला कि देखो मैं कड़ी मेहनत (hard work) करता हूं यह कार्य (work) भगवान का ही है. जो मैं कर रहा हूं. यही सोचकर करता हूं. मुझे उनका नाम लेने की फुरसत नहीं.

 

नारदजी वही से विष्णु लोक आये और भगवान विष्णु को उलाहना (complaint) देने लगे कि आप भी खूब हैं जो 24 घंटे में एक बार नाम लेता है, उसको तो परम भक्त (supreme devotee) बताते हैं और मैं जो हर समय (every time) नारायण-नारायण करता रहता हूं उसको नीचा भक्त (inferior devotee) बताते हैं. .

भगवान विष्णु बोले कि यह तो मैं बाद में बताऊंगा. तुम ऐसा करो कि उस महल (palace) में दूध (milk) का भरा हुआ एक कटोरा (bowl) रखा है, उसको उठा लाओ. मुझे बहुत भूख (hunger) लग रही है लेकिन देखना एक बूंद (drop) भी अगर दूध छलक गया तो तुम्हारा सिर (head) फट जायेगा.

नारदजी वहां पहुंचे, देखा दूध तो लबालब (full) भरा हुआ है. बड़े धीरे-धीरे (slowly-slowly) खिसकाते-खिसकाते उस कटोरे (bowl) को लाये. भगवान विष्णु बोले तुमने तो बहुत देर (late) कर दी. मैंने कहा था कि मुझे बहुत भूख लग रही है. नारदजी बोले कि भगवन आपने तो ऐसा भरा हुआ कटोरा दे दिया कि इसमें से एक बूंद भी छलक जाता तो में मृत्युलोक को चला जाता और मृत्यु (death) को प्राप्त हो जाता और यह लाना आसान (easy) काम नहीं था.

भगवान विष्णु बोले कि यह बताओ कि जब तुम कटोरा (bowl) लाये तुमने कितनी बार मेरा नाम लिया ? नारदजी बोले कि नाम लेने की फुरसत ही कहां थी मैं तो उस कटोरे (bowl) को ही देख रहा था कि कहीं बूंद न गिर जाय. भगवान विष्णु ने समझाया कि देखो जो मेरा काम कर रहा है उसको भी यही भय है. इसलिए वह मेरा परम भक्त (superior devotee) है.

वह हर समय मेरा काम समझकर ही कर रहा है. उसको भी नाम लेने की फुरसत नहीं है. रात में जब वह फुरसत पता है तभी एक बार मेरा नाम लेता है. सच बात यह है कि जो कर्म आप दूसरों का समझकर करते हैं उसका संस्कार नहीं बनता.

 

जिस प्रकार एक factory में अगर कोई कर्मचारी (worker) है, manager के कहने से जैसा कार्य (work) वह बतायेगा कर देगा, उसको उससे कोई मतलब नहीं कि नुकसान (loss) होगा या लाभ (profit). इसी तरह से दुसरे का, गुरु का या उसका समझकर जो कर्म (work) किया जाता है उसका संस्कार नहीं बनता.

दूसरी बात जो इस बारे में है जिससे संस्कार नहीं बनते वह यह है कि जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बताई. उन्होंने अर्जुन से कहा था कि तू कर्म (work) तो कर, युद्ध (war) तो कर, परन्तु उसका फल (result) क्या होगा इसको मेरी इच्छा (desire) पर छोड़ दे, इस बारे में मेरे मन वाला हो जा. फल (result) के प्रति दृष्टा भाव लाना यही मुक्ति है. इसी से संस्कार नहीं बनते. क्योंकि हम कर्म करते हैं और फल (result) के साथ अपनी इच्छा (desire) और मन (mind) जोड़ देते हैं. अगर फल (result) मन के प्रतिकूल (unfavorable) हुआ तो दुख प्राप्त (sad) होता है, अनुकूल (favorable) हुआ तो सुख प्राप्त (happy) होता है. यदि हम फल को दृष्टा भाव से लेंगे, अपने गुरु या इष्ट के मन के अनुसार ले लें या सोचें कि वही फल (result) देने वाला है जो दे वह अच्छा है तो यह फल के प्रति दृष्ताभाव है. यही दृष्टा भाव अभी आपने साधना में किया. इसी को अगर हम कर्म फल के ऊपर भी ले आयें तो हम संस्कारों से मुक्ति पा सकते हैं.

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