राजा विक्रमादित्य ने इस बार भी पहले की तरह शमशान में पहुँच कर पेड़ से शव को निचे उतारा और उसे कंधे पर डालकर मौन भाव से चल दिए . कुछ आगे चलने पर शव के स्तिथ बेताल ले फिर कहा - ' राजन ! आप मेरा बोझ उठाये चल रहे है और ऊपर से खामोश भी है . रस्ते का सफ़र आराम से कटे , इसके लिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं . सुनिए -
' प्राचीनकाल में उज्जयिनी में विरदेव नमक एक राजा राज्य करता था . उसकी रानी का नाम पदामरती था . उसकी कोई संतान नहीं थी . पुत्र-प्राप्ति की कामना से राजा और रानी ने मंदाकिनी के तट पर जाकर , तपस्या करने के बाद जब स्नान और अर्चना की विधियाँ पूरी की , तब भगवान शंकर प्रसन्न हुए और आकाश से उनकी वाणी सुनाई पड़ी - ' राजन ! तुम्हारे कुल में एक पराक्रमी पुत्र और एक अतुलनीय रूपवती कन्या जन्म लेगी , जो अपनी सुन्दरता से अप्सराओं का भी तिरस्कार करेगी . '
यह आकाशवाणी सुनकर राजा विरदेव की कामना पूरी हो गई . वह अपनी पत्नी के साथ अपनी नगरी में चला गया . कुछ समय बाद रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया . उसका नाम शुरदेव रखा . फिर कुछ दिनों बाद एक एक कन्या ने जन्म लिया . अपने सौन्दर्य से कामदेव के मन में भी स्प्रहा उत्पन्न करने वाली उस कन्या का नाम रखा अनंगरति . जब वह कन्या बड़ी हुई , तब उसके योग्य वर प्राप्त करने के लिए राजा विरदेव ने प्रथ्वी के सभी राजाओं के चित्र मंगवाएं .
जब पृथ्वी के सभी राजाओं के चित्र आ गए , तो राजा विरदेव को उनमे से कोई भी अपनी कन्या के योग्य नहीं लगा . तब उन्होंने प्यार से अपनी कन्या से कहा - ' बेटी ! मुझे तुम्हारे योग्य वर दिखाई नहीं पड़ता , अत: तुम सब राजाओं को एकत्र करके स्वयंवर करो . '
पिता की बात सुनकर राजकुमारी ने कहा - ' पिताजी ! लज्जा के कारण मैं स्वयंवर नहीं करना चाहती , किन्तु जो भी सुरूप युवक कोई अनूठी कला जनता हो , आप उसी से मेरा विवाह कर दें . इससे अतिरिक्त किसी और से मुझे कोई काम नहीं है . '
कन्या की बात सुनकर राजा उसके लिए वैसा ही वर की खोज करने लगे . इसी बिच , लोगों के मुंह से यह व्रतांत सुनकर दक्षिणापथ के चार पुरुष वहां पहुंचे , जो वीर थे , कलाओं में निपूर्ण थे और भव्य आक्रति वाले थे .राजा ने उन सबका स्वागत-सत्कार किया . फिर राजपुत्री की इच्छा रखने वाले वे पुरुष एक के बाद एक , राजा से अपनी कला-कौशल का वर्णन करने लगे .
उनमे से पहले ने कहा - ' राजन ! मैं शुद्र हूं . मेरा नाम पंचपतीक है . मैं प्रतिदिन पांच जोड़े उत्तम वस्त्र तैयार करता हूं . उनमे से एक जोड़ा वस्त्र मैं देवता को चढ़ाता हूं और एक जोड़ा ब्राह्मण को देता हूं . एक जोड़ा में अपने पहनने के लिए रखता हूं . इस राजकन्य का विवाह यदि मुझसे होगा , तो एक जोड़ा वस्त्र मैं इसे दूंगा और एक जोड़ा वस्त्र बेचकर में अपने खाने-पिने का प्रबंध करूँगा . अत: इस कन्या का विवाह आप मुझसे कर दें . '
दूसरा पुरुष बोला - ' राजन मैं भाषाज्ञ नमक वेश्य हूं . मैं सब पशु-पक्षियों की बोलियाँ जनता हूं , अत: इस राजपुत्री को आप मुझे दें . '
तीसरा बोला - ' राजन ! मैं पराक्रमी ब्राहमण राजा हूं . मेरा नाम खड्गधर है . खड्ग विद्या में मेरी बराबरी करने वाला कोई योद्धा इस धरती पर नहीं है . अत: आप अपनी इस कन्या को मुझे दें . '
चौथा बोला - ' राजन ! मैं क्षत्रिय हूं . मेरा नाम जिवदत्त है . मेरे पास एक ऐसी विद्या है , जिससे मैं मारे हुए प्राणियों को लाकर उन्हें जीवित करके दिखाता हूं . अत: ऐसे साहसिक कार्य में दक्ष , मुझको आप इसका पति स्वीकार करें . '
उन दिव्यवेश और आक्रति वाले उन चरों पुरुषों की बातें सुनकर राजा का मस्तिष्क चकराने लगा .
यह कहानी सुना कर बेताल बोला - ' राजन अब आप ही बताइए कि राजकुमारी का विवाह उन चरों में से किसके साथ करना चाहिए ? अगर आप जानते हुए भी मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया , तो आपका सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे . '
विक्रमादित्य ने कहा - ' बेताल तुम समय बिताने के लिए ही प्राय मुझे मौन भंग करने को विवश करते हो , अन्यथा तुम्हारा ये प्रश्न बड़ा कठिन है ? शुद्र जुलाहे को क्षत्रीय की कन्या कैसे दी जा सकती है ? वैश्य को भी क्षत्रीय कन्या नहीं दी जा सकती , और फिर उसे पशु-पक्षियों की भाषा का ज्ञाता था , उसका भी क्या उपयोग था ? तीसरा जो ब्राह्मण था , वह भी उसका पति होने के योग्य नहीं था , क्योंकि वीरता का अभिमान करने वाला वह ब्राह्मण , अपना काम छोड़कर बाजीगर बन गया था , इसलिए पतित था . अत: राजकुमारी का विवाह जिवदत्त नमक चौथे क्षत्रिय से ही करना उचित है , जो कुलशील में समान था , अपनी विद्या जानने वाला था तथा पराक्रमी था . '
अपने प्रश्न का उत्तर पाकर राजा का मौन भंग होते ही , शव सहित बेताल वहां से अदृश्य होकर वापस शमशान में आकर उसी पेड़ पर जा लटका .
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