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जिंदगी की राह में चलना संभल-संभल के - Walk carefully in the path of life




[caption id="" align="aligncenter" width="493"]चलना संभल-संभल के - Steady-steady walk, in Hindi चलना संभल-संभल के - Steady-steady walk, in Hindi[/caption]


जीवन की डगर (path) बहुत पतली है. इस पर बहुत संभल-संभल (carefully) के चलना चाहिए. जरा-सा भी इधर-उधर हुए कि बुरे फंसे. बुरे काम करते हुए तो लोग फंसते ही है  अच्छे काम करते हुए भी बाजी हार जाते है. अधर्म करने में ही नहीं, आदमी धर्म करते हुए भी भटक जाते है. जाना था कहां, चले जाते है कहां. धर्म करते हुए अधर्म हो जाता है. मोक्ष (salvation) के लिए चले थे, बंधन (bondage) हो जाता है.

हम सोचते है कि तमोगुण (element of dullness) बंधन है, विनाशक (destroyer) है, इससे बचो. रजोगुण (element of passion) भी बुरा है, भवजाल है, इससे बचो और सतोगुण (अच्छे कर्मों की ओर प्रवृत्त करने वाला गुण) का क्या कहना, यही तो सबकुछ है. इसमें प्रवेश कर गए तो मैदान मार ही लिया. मगर बाद में समझ में आता है कि कहीं चुक हो गई.

इसे ठीक से समझ नहीं पाया. तमोगुण और रजोगुण के बंधन तो मालूम भी होते है मगर सतोगुण का बंधन इतना झीना है कि मालूम ही नहीं होता. हम सोचते है कि हम तो ठीक कर रहे है, इसमें गलत क्या है ? जप, तप, दान, यज्ञ, प्रेम, दया, करुणा, अच्छी बातों का पठन-पाठन (read-write), उपदेश आदि ये सब ठीक ही तो है. इनमें भला खोट कहां है ? इन्हें खूब करो, खूब करो. सोना तो सोना ही है, सबसे बेश-कीमती है, इसे जितना बटोरो, घर भर लो, ठीक ही तो है. मगर रामचरित मानस कहती है -

नेम धर्म आचार तप जोग जग्य तप दान l
भेषज पुनि कोटिन्ह नाहीं रोग जाहिं हरिजान ll

लोग इसे जीवन भर पीटते रहते है, मगर अनादर (disrespect) के रोग जाते ही नहीं. ये सारी औषधियां नामक हो जाती है. यह याद रहे कि लोहे (iron) और चांदी (silver) से भी बड़ा बाजार सोने (gold) का है. इसका बाजार व्यापक (massive) है, अंतरराष्ट्रीय (International) है और इसके ही बड़े-बड़े तस्कर (Smuggler) देखे-सुने जाते है.. काला धंधा भी इसी क्षेत्र (field) में फलता-फूलता है.

यह सोने का धंधा बड़ा सूक्ष्म (subtle) है, जल्दी समझ में नहीं आता. लोग अच्छे-अच्छे वेष (look) बनाकर, माला-चन्दन सजाकर सोने का व्यापार करते है. नाम तो बहुत बड़ा होता है, मगर काम काले धंधे (black business) का होता है. इसलिए लोहे (iron) और चांदी (silver) के बाजार से भी अधिक सुवर्ण (gold) के बाजार में सावधान रहो. इसकी खरीदी-बिक्री करनी हो तो एक जोहरी को जरुर साथ ले लो.

यहाँ पर बुराई से तो डरना ही है, अच्छाई से भी डरना है.

बहुत अच्छाई भी आगे का रास्ता रोक देता है. कहा है कि ' नेकी कर कुएं में डाल ' - जो लोग उसे कुँए में नहीं डालते उन्हें वह खुद कुएं में ढकेल देती है. किसी की भलाई करके तुम उसे एकदम से भूल जाओ, ऐसे कि तुमने कुछ किया ही नहीं. एकदम से अलग हो जाओ. उसे अपने सिर का सेहरा मत बनाओ.

इससे तुम्हारा भार बढ़ेगा और आगे चल नहीं पाओगे. जो भी अच्छे काम करो जप करो, तप करो, यज्ञ करो, दान करो पूजा-पाठ, ज्ञान-ध्यान, भक्ति, प्रेम जो भी करो, बड़े संभल-संभल के करो. यह सदैव ध्यान रखो कि इससे कहीं तुम्हारा वजन (weight) तो नहीं बढ़ रहा है ? कहीं अहंकार (ego) का अंगूर तो नहीं फूट रहा है ? कहीं दूसरों को अपने से हीन (inferior) तो नहीं समझ रहे हो ? कहीं राग (anger) और द्वेष (hate) की बात तो नहीं हो रही ? ऐसा मालूम हो तो तत्काल (immediately) रुक जाओ, चाहे मार्ग (path) कितना भी अच्छा क्यों न हो. खोट (defect) को निकाल कर ही आगे बढ़ो या मार्ग बदल डालो. सबसे अच्छा है, सद्गुरु को सदा साथ रखो.

अच्छी बातें अच्छी ही है, इसमें अंधविश्वास (blind faith) मत करो. इसमें भी विवेक (sense) से काम लो. वेष (look) देखकर भूलो मत. साधु वेष में ही ठग (swindler) भी घूमते है. माया अपना फंदा ऐसे ही डालती है कि सुन्दर वेष बना लो, अच्छी बातें सिख लो, हाव-भाव जान लो और फंदा डाल दो. लोग तो आयेंगे ही चाहे जितनी मछलियाँ फंसा लो. वेष और हाव-भाव (gesture) देखकर एकाएक (suddenly) किसी को अपना आपा मत सौप देना. कुछ दिन उस सोने को अपनी आत्मा की कसौटी पर कसना, जब वह कहे तभी उसे अपनाना. यह धर्म (religion) का मार्ग है, अध्यात्म (spirituality) का मार्ग है, यह बहुत सावधानी का है. इसमें छले (cheat) जाने का भी बड़ा भय (fear) है.

देखो पवित्रता (purity) कितनी अच्छी चीज है. यम-नियमो में शौच स्वाध्याय (self-study) का प्रथम स्थान है. बिना पवित्र हुए कोई अनुष्ठान (ritual) नहीं होता. मगर बहुत-से लोग इस पवित्रता (purity) के जाल में फसे (stuck) समय बर्बाद कर रहे है.

सारा दिन पवित्रता में ही लगा देते है, पूजा नाम भर को हो जाती है. मन पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता. वह शांत होने के बाद ओर भी चंचल (playful) और परेशान हो जाता है. पवित्रता के इतने नियम और विधि-विधान फैला रखे है कि साँस लेने की फुर्सत नही.

नियम करते भर भी मालूम होता है, मगर वे छोड़ नहीं पाते क्योंकि भगवान (god) नाराज हो जायेंगे. वे भगवान के दास (slave) नहीं, नियमों के गुलाम बने हुए है. सरलता, शांति, प्रेम और मिलन सरिता (river) रुखसत हो गई है. दिन भर-बाहर जल ढालने रहना, मूर्तियों को, फोटो को, गीता -रामायण-चालीसा आदि सबको धोते-पोंछते रहना, गिन-गिनकर फुल चढ़ाना, धुप जलाना, राम-नाम लिखना, इन्ही बाहरी पवित्रता में अटके (stuck) रहते है. चूल्हे में डालने से पहले लकड़ियाँ भी बारीकी से धोयी जाती है. इसलिए पवित्रता तो हो मगर भंवर जाल न हो, पाखण्ड (hypocrisy) न हो, भक्ति (devotion) और प्रेम के मार्ग में रुकावट (interruption) न हो. आत्मा और आत्मा के मिलन में दीवार न हो.

वृन्दावन में एक महान संत रहते थे, नाम था - जीव गोस्वामी. बड़े धार्मिक, सनातनधर्म, आचार-विचार (ethics) के धनि और ज्ञानी थे. उनका नाम सुनकर कृष्ण-भक्त मीराबाई एक दिन उनसे मिलने के लिए गई. उन्होंने उनका दर्शन करना चाहा, अन्दर खबर भिजवाई. उन्होंने कहला भेजा कि जा कह दे, मैं स्त्रियों से नहीं मिलता. मीरा यह सुनकर आश्चर्य में पड़ गई और यह कह कर वापस जाने लगीं कि - आजतक तो मैं जानती थी कि विश्व में एक ही पुरुष है, मगर आज यह जान पायी कि यह दूसरा पुरुष भी है.

जब मीरा जी की वाणी महात्माजी तक पहुंची तो उनकी आंखें खुलीं. वह दौड़े-दौड़े आए और उनसे क्षमा याचना (apologies) की. आदर के साथ अन्दर ले गये. इसलिए ज्ञान और भक्ति में भी भूलो मत, महात्मा बनकर फूलो मत, विधि-निषेध (law prohibition) में उलझो मत, सबसे परे आत्मा की आवाज सुनो. वह मिलने आए तो भेद-भाव भुलाकर, अभिमान (pride) त्यागकर खुलकर मिलो.

 

राजा बाली कितना नेक इन्सान था. देत्य वंश का होकर भी देवी संपदा का धनि था. वह ईश्वर भक्त, दयालु (kind) और दानव्रती था. जो कोई जो कुछ भी मांगता, वह निर्भय (fearless) होकर देता. उसमे दान की पराकाष्ठा थी. ऐसा करते-करते उसमें यह अभिमान (pride) आ गया कि मेरे समान दानी (donor) और दूसरा कोई नही है. वह दानवीर अहंकार (ego) में घिर गया. अच्छा करते हुए अच्छाई से बंध गया. उसका अहंकार (ego) दूर करने के लिए वामन रूप में भगवान को आना पड़ा. उसने अपने जिद्द (insistence) के आगे गुरु की आज्ञा भी नहीं मानी और भगवान को भी छोटा समझ के दान देने पर अड़ गया. अहंकार का बादल फटा तो समझ पाया कि कहां भूल हुई है.

यह सब जो धर्म-कर्म, पूजा-पाठ हो रहा है, उसका श्रेय (credit) किसको है ? अरे वह तुमसे ये सब करा रहा है. यह उसकी कृपा (mercy)  है. तुम उसे ही भूल (forgot) गए ? यह कहानी नहीं, एक सबक (lesson) है. हम किसी दीन-हीन भिखारी को दो रूपए देते है तो दिखाकर देते है, लोगों को बार-बार सुनाते है. यह दान, दान नहीं, अंधकारमय अहंकार का छोटा सा बिज (seed) है. यह धर्म न करो अच्छा, मगर यह करके एक नई मुसीबत मोल लो, यह अच्छा नहीं.

 

एक महान नेक मनुष्य अरुणा और प्रेम के वशीभूत (addicted) बुरी तरह फंस गया. वह पूजा-ध्यान के पश्चात् (after) नदी किनारे बैठ प्रकृति का अवलोकन (observation) कर रहा था. तभी उसने देखा कि शेर (lion) की दहाड़ सुनकर एक हिरणी (deer) भागी आ रही है. बिच में एक नाला आ गया और वह कूदकर पार हो गयी. मगर उसके गर्भ का बच्चा जल (water) में गिर गया. वह हिरणी प्रसव पीड़ा (pain during pregnancy) से तत्काल मर गयी. उस मात्रहीन ( बिन माँ के ) अनाथ शावक पर दया आ गयी, सोचा कि अब इस दुनिया में इसका कौन है ? इस अनाथ (orphan) को सहारा देना चाहिए.

वह उसे ले आये. बड़े प्यार से पाला-पोसा. माता-पिता की तरह उसे प्यार-दुलार दिया. उसके साथ वह खेलते, मनोविनोद (pastime) करते. उसका उछलना, कूदना, चंचल चितवन उन्हें बड़ा अच्छा लगता. उसके प्यार में वो इतना खो गए कि पूजा-पाठ भी समय पर नहीं कर पाते. जब वह कुछ और बड़ा हुआ तो अचानक एक दिन वह जंगल (forest) में भाग गया. खोजने पर भी वह कहीं नहीं मिला.

वह बड़े चिंतित (worried) रहने लगे. उनकी प्यारी वस्तु खो गयी. खाना-सोना हराम (forbidden) हो गया. सोच रहते कि वह कैसे रहता होगा ? क्या खता होगा ? जंगल के जानवर उसे तंग करते होंगे. विधि का विधान, इसी चिंता में उनका प्राणान्त ( मृत्यु ) हो गया और वह एक हिरण (deer) के रूप में जन्म लिये. मनुष्य योनी से पशु योनी में आ गिरे.

नेक नियति का यह पुरस्कार मिला. प्रेम की गहरी आसक्ति (attachment) ने अपना रंग दिखा दिया. ईश्वर की कृपा से उनका ज्ञान बना रहा कि भूल के कारण उन्हें पशु शरीर (animal body) मिला है. वह हरिण सबसे अलग-थलग उदासीन (apathetic) रहता, एक अकेले-चरता, खाता, बैठता, उठता. समय आने पर उसका शरीर छुटा और वह मनुष्य बनकर ब्राह्मण कुल में जन्मा.

पिछले जन्मो का ज्ञान बना रहा, इसीलिए वह बचपन से ही अन्यमनस्क (saddish) , विरक्त (passionless) और मस्त (carefree) स्वभाव का हुआ. वह सबसे उदासीन (apathetic) और समाज से कटा-कटा रहता. किसी काम में मन नहीं लगता. जो काम दिया जाता, वह ठीक उसका उल्टा (opposite) करता. दूध का जला जैसे फूंक-फूंक कर पिता है. फसल की रखवाली पर जाते तो, न तो पक्षियों (birds) को भागते, न तो फसल खा रहे पशुओं (animals) को. सोचते थे कि कहीं फिर न पांव फिसल जाये.

घरवालों ने उन्हें निकम्मा (useless) और बेकार (waste) समझकर छोड़ दिया. वे उदासीन और अनासक्त (disinterested) भाव से कहीं वृक्षों (tree) की छाया (shadow) में पड़े रहते. लोग उन्हें पागल (mad) समझते, मगर थे वे एक महान आत्मा. लोग उन्हें जड़ भरत के नाम से जानते थे. किसी से लेना न देना, न बोलना, न चालना. इस भव-सागर में कमल पत्र पर जल की बूंद के समान आत्मा के स्वरुप थे.

वे धर्म करते हुए भटक गये थे, मगर फिर ईश्वर की दया हुयी और सही ठिकाने (address) पर आ गये. इसलिए धर्म करो तो उससे सटो मत, उस से स्वार्थ (selfishness) मत साधो, नाम मत कमाओ, सिर का सेहरा मत बनाओ, डंका मत पीटो. बस काम से काम रखो. दिखावा करने या स्वार्थ (selfishness) साधने से या आसक्ति (attachment) का शिकार होने से यह धर्म भी अधर्म का फल देता है.

 

धर्म (religion) एक पवित्र व्यवहार है, निर्मल और सुन्दर आचरण (manner) है. अनासक्त सदाचार (unattached morality) है. धर्म को पढ़कर लोग पाठक (reader) बन जाते है, धर्म छुट जाता है. यम-नियम को करते-करते लोग औपचारिक (formal) बन जाते है, सोच (thinking), संतोष (satisfaction), स्वाध्याय (self-study) सब छुट जाता है. वे नियमों के कट्टर (hardcore) और ह्रदय के कठोर (rigid) बन जाते है. वे सद्गुरु से दूर और कर्तव्य के विमुख (unpresentable) चले जाते है. जब धर्म ही रास्ता रोककर कर्तव्य च्युत (disgust) करने लगता है. वे पर्दों को हटाते है, धर्म का सच्चा स्वरूप दिखाते है. कहते है - 'सर्वधर्मान परीत्यज्य .....' अरे यह सब धर्म नहीं है, इन्हें छोड़ो.

पाप और पुन्य को जानना धर्म नहीं है, धर्म तो कर्तव्य भाव से अपनी जिम्मेदारी वहन (carry) करने में है. पाप और पूण्य को कुँए में डाल और अनासक्त (unattached) भाव से कर्तव्य पथ पर आगे बढ़. कर्ता (performer) बनकर नहीं, अकर्ता (recipient) बनकर जीवन की डगर तय कर. न इधर देख न उधर देख. कर्तव्य ही पूजा है, सबसे महान धर्म है, तू अपनी निगाह इसी पर रख.

जहाँ कर्तव्य का ज्ञान (knowledge) नहीं, वहाँ धर्म कहां ? वहाँ धर्म का प्रकाश कहां ? तू जय और पराजय में समान भाव ला, सुख और दुख में भी स्थिरता (stability) ला, तथा संसार और परमार्थ में भी समान स्थापित कर.

तू अकर्ता (recipient) बनकर सब कुछ करता हुआ इस डगर पर चलता चला जा, गुरु शक्ति के अधीन (subordinate) रहकर संसार के सारे व्यवहार निभाते चले जा, तेरा वेग (quickness) कोई रोक नहीं पायेगा. तुझे न कोई पाप होगा, न पूण्य, न बंधन होगा, न कुक्त होगा, सहज स्वरुप आत्मा होगा. धर्म का सार अपने को नियमों में बांधने में नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म दोनों से मुक्त होना है. यही निर्विकार (pestilence) आत्मा का स्वरुप (form) है.

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