बहुत समय पहले कनकपुर नाम के नगर में यशोधन नाम का एक राजा राज्य करता था . राजा यशोधन परनिन्दा करने में मुर्ख था , शास्त्रार्थ में नहीं , उसमें दुर्गुणों की दरिद्रता थी , राजकोष और सेनाओ की नहीं . उसकी प्रजा उसका गुणगान करती हुई रहती थी कि वह पापों से डरता है , यश का लोभी है , परस्त्री के लिए नपुंसक है और वीरता , उदारता तथा श्रृंगार से युक्त है .
उस नगर में एक महासेठ व्यापारी भी रहता था . उसकी एक कन्या थी , जो उन्मादिनी नाम से प्रसिद्द थी . कोई भी उसकी रूप -शक्ति से उन्मत हो जाता था . उसका सौन्दर्य कामदेव को भी विचलित करने वाला था .
जब वो विवाह योग्य हुई , उसके पिता राजा यशोधन के पास गए और उनसे निवेदन किया - ' महाराज , मैं त्रिलोक के रत्न के समान अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं , लेकिन आपसे निवेदन किए बिना उसका विवाह करने का सहस नहीं होता . समस्त संसार में सभी रत्नों के स्वामी आप ही हो . इसलिए या तो उसे स्वीकार करके मुझे अनुग्रहित करें या अस्वीकार के दें .
उसकी बात सुनकर राजा ने उसकी कन्या के शुभ लक्षणों को देखने के लिए कुछ ब्राह्मणों को उसके पास भेजा . ब्राह्मणों ने वहां जाकर जैसे ही तीनों में अपूर्व रूपवाली उस कन्या को देखा , वैसे ही उनका चित्त चंचल हो गया , किन्तु शीघ्र ही धेर्य धारण करके उन लोगों ने सोचा कि यदि राजा इस कन्या से विवाह करेगा , तो उसका राज्य नष्ट हो जायेगा क्योंकि इसके द्वरा मोहित चित्त वाला राजा क्या राज्य की देखभाल कर सकेगा . इसलिए हम लोग राजा से यह नहीं कहेंगे कि यह सुलक्षण है . ' यश विचार कर वे वापस राजा के पास आ गए .
राजस के पास आकर उन ब्राह्मणों ने कहा - ' राजन , वह कन्या तो कुलक्षणा है . '
यह सुनकर राजा ने उस कन्या को स्वीकार नहीं किया . तब तब महासेठ व्यापारी ने राजा की आज्ञा से अपनी कन्या उन्मादिनी का विवाह बलधर नामक सेनापति से करवा दिया . वह अपने पति के साथ उसके घर में सुखपूर्वक रहने लगी , लेकिन उसके मन में इस बात की फ़ांस बनी रही कि राजा ने कुलक्षना कहकर मेरा त्याग किया है .
एक दिन राजा यशोधन हठी पर चढ़कर नगर में हो रहे बसंत महोत्सव को देखने के लिए निकले . तभी उसकी नजर भवन के छत पर खड़ी उन्मादिनी पर पड़ गई . उसे देखकर राजा के मन में कामाग्नि की ज्वाला सुलग उठी . कामदेव के विजयास्त्र के समान उसकी सुन्दरता को देखते ही वह राजा के ह्रदय की गहराई में घुस गई और पलक झपकते ही राजा अचेतन (senseless) हो गया . उसके सेवक उसे राजधानी ले आए . उनसे पूछने पर उसे मालूम हुआ कि यह वही कन्या है , जो उसे निवेदित की गई थी , पर जिसे उसने त्याग दिया था .
जिन ब्राह्मणों ने उसे कुलक्षना कहा था , राजा ने उन्हें देश निकाला दे दिया . राजा दिन-रात उसी कन्या के लिए बेचैन रहने लगा . वह दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगा . लज्जा के कारण उसने अपनी भावना को छिपा रखा था , किन्तु बाहरी लक्षणों को देखकर विश्वास जनों के पूछने पर उसने अपनी पीड़ा का कारण बता दिया . उन्होंने कहा - ' राजन , इतना दुखी होने को आवश्यकता नहीं है . वह तो आप ही अधीन है , फिर आप उसे अपना क्यों नहीं लेते ?
लेकिन धर्मात्मा राजा ने उसकी बात नही मानी . सेनापति राजा का भक्त था . उसे यह बात मालूम हुई , तब वह राजा के पास आया और उनके चरणों में झुक कर बोला - ' राजन , आपके इस दास की वह स्त्री आपकी दासी है . वह परस्त्री नहीं है . मैं स्वय ही आपकी सेवा में भेट करता हूं . आप उसे स्वीकार करें .
अपने प्रिय भक्त सेनापति से ऐसी बात सुनकर राजा क्रोधित होकर बोला - ' राजा होकर मैं एसा अधर्म कैसे करूँ ? यदि मैं ही मर्यादा का उल्लंघन करूँगा , तो कौन अपने कर्तव्य मार्ग पर स्थिर रहेगा ? मेरे भक्त होकर भी तुम मुझे उस पाप में क्यों प्रवृत्त करते हो , जिसमे क्षणिक सुख तो है , पर परलोक में में दुख का कारण है . यदि तुम अपनी धर्मपत्नी का त्याग करोगे , तो मैं तुम्हे क्षमा नहीं करूँगा , क्योंकि मेरे समान कौन राजा ऐसा अधर्म सहन कर सकता है ? इसलिए मेरे लिए मृत्यु ही श्रेयस्कर है . '
यह कहकर राजा ने उसकी बात टाल दी . नगर और गांव के लोगों ने भी मिलकर राजा से यही , तब भी राजा ने उनकी बात नहीं मानी . राजा का शरीर धीरे-धीरे उसी कामज्वर के ताप में क्षीण होता गया और अन्त में उसका यश प्राप्त ही बचा रह गया , अर्थात मृत्यु हो गई . उसकी मृत्यु के शोक में सेनापति ने भी अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण त्याग दिए , क्योंकि अपने स्वामी की ऐसी मृत्यु को वह सहन नहीं कर सका . सच ही कहा गया है , भक्तों की चेष्टाओं को जाना नहीं जा सकता .
बेताल ने यह आश्चर्यजनक कहानी सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पूछा - ' राजन , अब बताएं कि सेनापति और राजा , इन दोनों में कौन अधिक दृढ़ चरित्र था ? अगर जानते हुए भी आपने मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया , तो आपके सिर क्र टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे . '
बेताल के प्रश्न को सुनकर आख़िरकार विक्रमादित्य हो अपना मौन तोड़ना पड़ा . वे बोले - ' बेताल , उन दोनों में तो राजा ही अधिक दृढ़ चरित्र था . '
यह सुनकर बेताल बोला - ' राजन , उनमें से सेनापति अधिक दृढ़ चरित्र क्यों नहीं था ? उसकी स्त्री अलौकिक सुंदरी थी . उसने बहुत समय तक उसके साथ सुख भोगकर उसका स्वाद जाना था , फिर भी स्वामीभक्ति के कारण वह अपनी स्त्री राजा को सौपने आया था . और फिर , राजा की मृत्यु के बाद उसके स्वय को भी अग्नि में समर्पित कर दिया लेकिन राजा ने उसकी पत्नी का त्याग कर दिया था , जिसके भोगरस का उसने आस्वादन भी नहीं किया था . '
बेताल के ऐसे कहने पर विक्रमादित्य ने हँसते हुए कहा - ' बेताल , कहते तो तुम ठीक ही हो , लेकिन इसमें अचरज की क्या बात है ? सेनापति कुलीन वंश का था . उसने जो स्वामी भक्ति के लिए किया , तो उचित ही किया , क्योंकि सेवक का तो कर्तव्य ही है कि वह प्राण देकर भी स्वामी की रक्षा करे लेकिन राजा तो मदमत्त हाथी की तरह निरंकुश होता है . वे जब विषय-लोलुम होता है , तब धर्म और मर्यादा की सीमा तोड़ देता है . निरंकुश चित्तवाले राजाओं का विवेक , अभिषेक के जल से उसी प्रकार बह जाता है , जैसे बाढ़ के पानी से सब कुछ बह जाता है .
डोलते हुए चंवर की वायु जैसे रजकण , मच्छर और मक्खियों को उड़ा देता है , वैसे ही वृद्धों के द्वारा उपदिष्ट शास्त्रों के अर्थ तक को दूर भगा देता है . उनका छत्र जैसे धुप को रोकता है , वैसे की सत्य को भी ढक देता है . वैधव की आंधी में चौंधियाई उनकी आंखें उचित मार्ग नहीं देख पाती . नहुष आदि राजा जगद्विजयी थे , फिर भी जब उनका चित्त काममोहित हो गया , तब उन्हें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा . यह राजा भी पृथ्वी पर एकछत्र शासक था , फिर भी वह लक्ष्मी के समान चंचला उन्मादिनी के द्वारा विमोदित नहीं हुआ . उस धर्मात्मा व धीर राजा ने अपने प्राण त्याग दिए , किन्तु कुमार्ग पर पैर नहीं . इसी से मैं उसे अधिक दृढ़चरित्र वाला मानता हूं . '
सही उत्तर पाकर बेताल संतुष्ट हो गया , परन्तु मौन तोड़ने का दण्ड विक्रमादित्य को भुगतना पड़ा . बेताल स्वतंत्र हो गया और वह शव सहित अदृश्य होकर फिरसे उसी पेड़ पर जाकर उल्टा लटक गया .
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