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सेवक का बलिदान - Vikram Betaal Ki Kahani



धुन के पक्के राजा विक्रमादित्य शव का पीछा करते हुए उस वृक्ष के पास पहुंचे और पेड़ से शव को उतारकर अपने कंधे पर लादा तथा अपनी मंजिल की ओर चल पड़े . तब शव के अन्दर से बेतालने कहा - ' राजन , उस दृष्ट योगी के लिए इतना परिश्रम क्यों कर रहे हो ? इस निष्फल परिश्रम में आपका विवेक भी तो नहीं दीख पड़ता है . फिर भी मार्ग विनोदन के लिए मैं आपको एक कथा सुनाता हूं . सुनिए .

प्राचीनकाल में वर्धमान नगर में एक राजा राज्य करता था . राजा का नाम रूपसेन था . वह बड़ा प्रतापी और यशस्वी था . उसके प्रताप और यश पर लक्ष्मी जी भी विमुग्ध हो रही थी . वीरों पर प्रीति रखने वाले उस राजा के पास नौकरी करने की इच्छा से एक बार मालवा से वीरवर नाम का एक क्षत्रिय आया . उसके परिवार में तीन व्यक्ति थे - उसकी पत्नी धर्मवती , पुत्र सत्त्ववर तथा कन्या वीरवती . परिवार तो केवल उसका इतना ही था , फिर भी उसने राजा से वेतन के रूप में प्रतिदिन पांच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी . राजा रूपसेन ने उसे इच्छित वेतन देना स्वीकार कर लिया .

स्वभावत: राजा को कौतुहल हुआ कि इतना छोटा परिवार होते हुए भी यह इतनी स्वर्ण मुद्राओं का क्या करेगा ? इसे कोई दुव्य्रसन है अथवा यह इस धन को पूण्यकार्यों में खर्च करता है ? राजा ने इस बात का पता लगाने के लिए लिए उसके पीछे अपने गुप्तचर छोड़ दिए .

वीरवर सवेरे से शाम तक राजा के सिहंद्वार पर पहरा देता था और फिर घर जाकर अपने वेतन में से एक सौ मुद्राएँ अपनी पत्नी के हांथों में दे देता था . एक सौ मुद्राएँ स्नान के बाद विष्णु और शिव की पूजा में लगता था और शेष दो सौ मुद्राएँ वह ब्राह्मणों और दरिद्रों को दान दे देता था . इस प्रकार वह प्रतिदिन उन पांच सौ स्वर्ण मुद्राओं का उपयोग करता था . फिर वह अग्निहोत्र आदि कार्यों से निबट कर भोजन करता और फिर रात में राजा के सिहंद्वार पर जाकर , हाथ में तलवार लिए पहरा दिया करता था .

राजा रूपसेन ने जब अपने गुप्तचरों से उसका यह नियम सुना , तब वह मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुआ . उसने वीरवर को पुरुषों में श्रेष्ट और विशेष रूप से आदर के योग्य समझा और पीछा करने वाले अपने गुप्तचरों को रोक दिया .

एक बार कृष्ण चतुर्थी की कली अँधेरी रात में आधी रात के समय राजा ने किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी . राजा उस आवाज को सुनकर उठ बैठे , उसने आवाज लगाई - ' सिहंद्वार पर कौन है ? '

वीरवर ने तुरंत उत्तर दिया - ' मैं हूं महाराज . '

राजा ने कहा - ' वीरवर , बाहर जाकर देखो , यह यह रोने की आवाज कहा से आ रही है ? '

' जो आज्ञा महाराज ' कहकर वीरवर उस दिशा की ओर चल पड़ा , जिधर से रोने की आवाज आ रही थी .उसके जाने के बाद राजा ने सोचा कि उसने वीरवर को अकेले उस स्थान पर भेजकर उचित नहीं किया , पता नहीं उसे किस विपत्ति का सामना करना पड़े . ऐसा सोचकर उसने निश्चय किया कि उसे स्वयं भी उसके पीछे-पूछे जाना चाहिए , ताकि उस पर कोई विपत्ति आती देखे , तो उसकी सहायता कर सके . यही सोचकर वह भी उसके पीछे-पीछे तलवार लिए बाहर को चल दिया .

रोने की आवाज का अनुसरण करता हुआ नगर के के बाहर जा पहुंचा . वहाँ उसने एक सरोवर देखा . उस सरोवर के किनारे एक स्त्री बैठी रो रही थी . वीरवर ने उससे पूछा - ' देवी , तुम कौन हो और इस भयानक रात में यहाँ बैठी क्यों रो रही हो ? '

वह स्त्री बोली - ' हे वीरवर , तुम मुझे यह पृथ्वी मानो . इस समय मेरे स्वामी राजा रूपसेन है , जो धर्मात्मा है . आज से तीसरे दिन उनकी मृत्यु हो जाएगी . फिर मैं उनके समान किसी दुसरे राजा को स्वामी के रूप में पाऊँगी . इसी से दुखी होकर मैं उनके और अपने लिए शोक कर रही हूं . '

यह सुनकर वीरवर बोला - ' हे देवी , क्या कोई ऐसा उपाय है , जिससे जगत के रक्षक उस राजा की मृत्यु न हो ?

पृथ्वी बोली - ' इसका एक ही उपाय है और उसे केवल तुम्ही कर सकते हो . '

वीरवर ने कहा - ' देवी , अगर ऐसी बात है , तो वह उपाय मुझे शीघ्र बताइए , जिससे तत्काल ही मैं उसे कर सकूँ  . '

पृथ्वी बोली - ' वत्स , तुम्हारे समान वीर और स्वामिभक्त दूसरा कौन हो सकता है ? इसलिए मैं तुम्हे राजा के कल्याण का उपाय बताती हूं . सुनो - राजा के भवन के निकट ही श्रेष्ट चंडिका का मन्दिर है . यदि तुम देवी कंडिका को अपने पुत्र सत्त्ववर की बली दे दो , तो राजा की मृत्यु नहीं होगी . वे सौ साल और जिएंगे . नहीं तो आज से ठीक तीसरे दिन राजा की मृत्यु हो जाएगी . '

यह सुनकर वीरवर बोला - ' देवी , अगर ऐसी बात है , तो मैं अपने पुत्र की बलि चंडिका को अवश्य दूंगा . '

पृथ्वी ने प्रसन्न होकर कहा - ' वस्त , तुम्हारा कल्याण हो . ' यश कहकर वह अंतर्ध्यान हो गई .

पास ही छिपे राजा ने रूपसेन ने ये साडी बात सुन ली . वीरवर शीघ्रता से अपने घर की ओर चल दिया . राजा भी छिपते-छिपते उसके पीछे चलने लगा . घर पहुँच कर वीरवर ने अपनी पत्नी को जगाया और पृथ्वी ने राजा के लिए पुत्र की बलि देने के लिए जो कुछ कहा था , वह उसे कह सुनाया .यह सुनकर उसकी पत्नी ने कहा - ' स्वामी , राजा का कल्याण अवश्य करना चाहिए , इसलिए आप पुत्र को जगाकर उसको सारी बातें बात दें . '

पत्नी की बात सुनकर वीरवर ने सोये हुए पुत्र को जगाया और कहा - ' बेटा , चंडिका देवी को तुम्हारी बलि दे देने से राजा के प्राण बच सकते है , नहीं तो आज से तीसरे दिन राजा की मृत्यु हो जाएगी . '

यह सुनते ही सत्त्ववर ने कहा - ' पिताजी , यदि मेरे प्राणों के बदले राजा का जीवन बच जाएगा , तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगा . अब आप बिना विलम्भ किए मुझे भगवती के सामने में जाकर मेरी बलि दे दें , जिससे मुझे शांति मिल सके . '

पुत्र की ऐसी बात सुनकर वीरवर बोला - ' बेटा तुम धन्य हो ' यह कहकर वीरवर ने पुत्र को कंधे पर बिठाया और पत्नी व पुत्री को लेकर चंडिका के मन्दिर में पहुँच गया . राजा रूपसेन भी छिपकर उनके पीछे-पीछे वहाँ पहुंच गए . मन्दिर पर पहुँच वीरवर ने पुत्र को कंधे से उतारा , पुत्र ने देवी को प्रणाम किया और कहा - ' हे देवी माँ , मेरे मस्तक के उपहार से राजा रूपसेन अगले सौ वर्षों तक जिविर रहें और राज्य करें . '

पुत्र की ऐसी बात सुनकर वीरवर ने उसे ' धन्य-धन्य ' कहकर तलवार निकली और उसका मस्तक काटकर देवी चंडिका को दे दिया . उसी समय आकाशवाणी हुई - ' वीरवर तुम धन्य हो , तुम्हारे समान स्वामिभक्त और कौन है , जिसने एकमात्र गुणी पुत्र को बलि देकर राजा को जीवनदान दिया . 'राजा रूपसेन छिपकर ये सभी बातें देख और सुन रहे थे . अब वीरवर की कन्या वीरवती आगे बढ़ी . उसने अपने भाई के मस्तक का आलिंगन किया और फूट-फूटकर रोने लगी . वह ये शोक बर्दास्त न कर सकी और उसने प्राण त्याग दिए . यह देखकर वीरवर की पत्नी बोली - ' स्वामी , राजा का कल्याण तो सिद्ध हो गया . बेटी भी भाई के शोक में मर गई . अब मैं अपने दोनों बच्चों के मरने के बाद जीकर क्या करुँगी ? अब आम मुझे आज्ञा दें कि मैं अपने बच्चों के शरीर के साथ अग्नि में प्रवेश करूँ . '

पत्नी की बात सुनकर वीरवर बोला - ' ठीक है प्रिये , तुम ऐसा ही करो . तुम्हारा भला हो . एकमात्र बच्चों का शोक ही जिसके पास बचा हो , ऐसे जीवन से अब क्या अनुराग . ' यह कहकर वीरवर ने चिता तैयार की . दीपक से उसे जलाया और उस पर दोनों बच्चों के शव रख दिए . तब उसकी पत्नी ने देवी को प्रणाम करके कहा - ' हे देवी , अगले जन्म में भी यही आर्यपुत्र मेरे पति हों और यही राजा मेरे स्वामी . मेरे इस शरीर-त्याग से इनका कल्याण हो . ' यह कहकर वह चिता की अग्नि में कूद गई .

इसके बाद पराक्रमी वीरवर ने सोचा - ' आकाशवाणी के अनुसार राजा का काम तो मैं पूरा कर चूका . मैंने अपने स्वामी का जो नमक खाया था , उससे मैं उऋण हो गया हूं , तो फिर मुझे अकेले को जीवन की तृष्णा क्यों रखने चाहिए ? जो भरण के योग्य थे , उन अपने सभी कुटुम्बियों का नाश करके अकेले अपने को जिन्दा रखने वाला मेरे समान कौन व्यक्ति शोभित हो सकता है ? तो फिर मैं अपने शरीर की भी बलि देकर क्यों न माता को प्रसन्न करूँ ? यह सोचकर वह देवी को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगा .

देवी की स्तुति करके वीरवर ने अपनी तलवार से अपना मस्तक काट डाला . वहीँ पास में छुपा राजा रूपसेन सारा नजारा देख रहा था . यह दृश्य देखकर दुख से विकल होकर वह सोचने लगा - ' अरें इस सज्जन पुरुष ने अपने परिवार सहित मेरे लिए यह कैसा दुष्कर्म कार्य किया . ऐसा तो मैंने कहीं देखा न सुना . इस विचित्र संसार में इसके समान ऐसा धीर पुरुष कहां है , जो बिना कहे-सुने परोक्ष में अपने स्वामी के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे . यदि इसके उपकार का प्रत्युपकार मैं न कर सकूँ , तो मेरे राजा होने का क्या अर्थ है . ' यह सोचकर म्यान से अपनी तलवार निकाली और देबी के निकट जाकर प्राथना कि - ' देवी भगवती , मैं सदा आपकी शरण में रहा हूं . इसलिए आज आप मेरे मस्तक का उपहार लेकर प्रसन्न हों और मुझ पर कृपा करें . अपने नाम के अनुसार आचरण करने वाले वीरवर ने मेरे लिए अपने प्राणों का त्याग किया है . यह अपने कुटुम्ब के साथ जीवित हो जाए .

यह कहकर राजा ज्यों ही तलवार से अपना मस्तक काटने को उठा , तभी आकाशवाणी हुई - ' राजन , ऐसा साहस मत करो . मैं तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हूं . यह वीरवर अपनी पत्नी और बच्चों सहित फिर से जी उठे . '

आकाशवाणी के रुकते ही वीरवर अपने पुत्र , पुत्री और पत्नी सहित जी उठा . यह अदभुत दृश्य देखकर राजा फिर छिप गया और प्रसन्नता से आंसुओं से भींगी आँखों से उन्हें देखता रहा .

शीघ्र ही वीरवर ने अपने बच्चों तथा पत्नी सहित अपने को सोकर उठा हुआ-सा देखा , तो उसका मन भ्रान्त हो गया . उसने अपनी पत्नी व बच्चों को अलग-अलग पुकार कर पूछा . ' - तुम लोग तो आग में जल गए थे , फिर जीवित कैसे उठ खड़े हुए ? और मैंने भी तो तलवार से अपने मस्तक काट डाला था . मैं भी क्या जीवित ही हूं ? यह मेरी भ्रान्ति है या देवी ने सचमुच हम लोगों पर कृपा की है ? '

वीरवर की बात सुनकर उसकी पत्नी ने बच्चों से कहा - ' हम लोग फिर से जीवित हो गए है , यह देवी की ही कृपा है , इसलिए हम लोग उसे जान नहीं पाए . '

वीरवर ने भी समझा की ऐसी ही बात है . उसका काम पूरा हो चूका था . उसने देवी को प्रणाम किया और अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर घर की ओर चल दिया . पत्नी व बच्चों को घर पर छोड़कर , वह उसी रात पहले की ही तरह राजा के सिहंद्वार पर जा पहुंचा .

यह देखकर राजा रूपसेन भी सबकी नजरें बचाकर , फिर अपने महल की छत पर जा चढ़ा . वहां से उसने आवाज लगाई - ' सिहंद्वार पर कौन है ? '

वीरवर ने कहा - ' स्वामी , यहाँ मैं हूं . आपकी आज्ञा से मैं उस स्त्री को देखने गया था . मेरे जाने पर देखते ही देखते वह राक्षसी के समान गायब हो गई . '

वीरवर की बात सुनकर राजा जो बड़ा विस्मय हुआ , क्योंकि सारा हाल उसने अपनी आँखों से देखा था . वह सोचने लगा - ' अरे , मनस्वी पुरुष कैसे धीरे चित्तवाले और समुद्र के समान गंभीर होते है , जो दूसरों से न हो सकने योग्य असाधरण काम करके भी उसका उल्लेख तक नहीं करते . ' यह सोचता हुआ राजा चुपचाप महल की छत से उतरा और अपने अंतपुर में जाकर बाकि रात बिता दी .
सवेरा होते ही वीरवर राजसभा में राजा के दर्शन करने आया . उसके कार्यों से प्रसन्न राजा ने पिछले रात का साडी घटना अपने मंत्रियों से कह सुनाया . सुनकर वे सभी आश्चर्य से अचेत-जैसे हो गए . राजा ने प्रसन्न होकर वीरवर तथा उसके पुत्र को ' लाट ' और ' कर्नाट ' का राज्य दे दिया . अब वे दोनों ही समान वेभव वाले तथा एक-दुसरे का भला करने वाले हो गए और इस तरह राजा वीरवर तथा रूपसेन सुखपूर्वक रहने लगे .

यह कथा सुनाकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से कहा - ' राजन , अब यह बताएं कि इनमे से सबसे बड़ा वीर कौन था ? अगर जानते हुए भी अपने अपना मौन नहीं तोड़ा तो आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे . '

आखिर विक्रमादित्य को मौन भंग करना ही पड़ा . वह बोल पड़े - ' बेताल , इन तीनो में सबसे बड़ा राजा रूपसेन था . '

बेताल बोला - ' राजन , सबसे बड़ा वीर , क्या वीरवर नहीं था , जिसके समान इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं हो सकता और क्या उसकी पत्नी भी अधिक नहीं थी , जिसने पति की बात मान ली और जिसने अपने पुत्र का वध होते देखा और क्या उसका पुत्र सत्त्ववर उससे भी बड़ा नहीं था , जिसमे बालक होने पर भी वीरता का वैसा अदभुत था . तो फिर आप इन सबसे बड़ा वीर राजा रूपसेन को कैसे कह सकते है ? '

यह सुनकर राजा विक्रमादित्य बोले - ' ऐसी बात नहीं है बेताल , वीरवर का जन्म ऐसे कुल में हुआ था , जिसके बालक अपने प्राण , अपनी स्त्री और अपने बच्चों की बलि देकर भी स्वामी की रक्षा करना अपना कर्तव्य मानते है . उसकी पत्नी भी कुलीन वंश की थी , पतिव्रता था . वह पति को ही एकमात्र देवता मानती थी . पति के मार्ग पर चलने के अतिरिक्त उसका कोई धर्म नहीं था . उनसे उत्पन्न सत्त्ववर भी उन्ही के समान था . जाहिर है कि जैसा सूत होगा , वैसा ही कपड़ा तैयार होगा . लेकिन , जिन नौकरों के प्राणों से राजा अपने जीवन की रक्षा करते है , रूपसेन उन्ही के लिए अपने प्राण त्याग करने को तैयार हो गया था , इसलिए उन सबमे वह विशिष्ट था . '

अपने प्रश्न का सही उत्तर पाकर बेताल बोला - ' राजन , आपने नेरे प्रश्न का सही उत्तर दिया , लेकिन आपने अपना मौन तोड़ दिया . इसलिए मैं जा रहा हूं . पकड़ सकें तो पकड़ लें . ' यह कहकर बेताल शव सहित अदृश्य होकर फिरदे पेड़ पर लटक गया .

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