Vikram Aur Betaal ki kahani
प्राचीनकाल में उज्जयिनी में चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का शासन था . यशस्वी और इंद्र के समान पराक्रमी थे . उनकी न्यायप्रियता और पराक्रम के चर्चे दूर-दूर तक प्रसिद्द थे . राज्य की समूची प्रजा उन्हें स्नेह करती थी . राजा विक्रमादित्य प्रत्येक व्यक्ति की सहायता के लिए तत्पर रहते थे . वे प्रतिदिन निर्बल और दीन-दुखी लोगों को दान-दक्षिणा दिया करते थे . सज्जन एवं धर्म-परायण व्यक्ति सदेव उनके दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त करते थे .
राजा विक्रमादित्य हर रोज राजसभा में बैठकर अपने सभासदों (Councillors) से राज्य के बारे में विचार-विमर्श करते थे . एक योगी भी हर रोज उनकी राजसभा में आता और एक फल (fruit) उन्हें दे जाता . राजा विक्रमादित्य भी हर रोज वह फल ले लेते और अपने खजांची (treasurer) को सौप देते थे . इसी तरह दस साल बीत गए .
एक दिन जब वह योगी हर रोज की तरह राजा विक्रमादित्य को वह फल देकर राजसभा से चला गया , उसी वक़्त एक बन्दर का बच्चा न जाने कहां से राजसभा में आया और राजा की गोद में बैठ गया . राजा विक्रमादित्य ने बन्दर को भूखा समझकर वह फल उसे खाने को दे दिया . जैसे ही बन्दर ने वह फल मुहं में रख कर तोड़ा , उसके अन्दर से एक बहुमूल्य रत्न निकलकर फर्श पर गिर गया . यह देखकर राजा विक्रमादित्य को बड़ा आश्चर्य हुआ . उन्होंने वो रत्न उठा लिया और अपने खजांची से पूछा - ' खजांची जी , योगी द्वारा लाये गए सारे फल मैं तुमको ही देता था , वे तुमने कहाँ रखें है ? '
यह सुनकर खजांची ने डरते हुए कहा - ' राजन , मैं ने रत्न-भंडार को खोले बिना ही उन फलों को खिड़की के रस्ते उसमे डाल दिया करता था . यदि आप आज्ञा दें , तो रत्न-भंडार को खोलकर देखूं ? '
राजा विक्रमादित्य ने उसे आज्ञा दे दी . आज्ञा पाते ही वह रत्न भंडार में गया . जब उसने रत्न-भंडार खोला , तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि उन फलों की जगह पर वहां ढेर सरे रत्न बिखरे पड़े है . वह तुरंत तुरंत वापस आया और राजा विक्रमादित्य से बोला - ' राजन वो फल तो सड़ गए है , लेकिन उनकी जगह वहां रत्न बिखरे पड़े है . विक्रमादित्य ने कहा - ' वहां की साडी रत्न को निर्धन , दीन-दुखी और गरीब लोगों में बाट दो .
अगले दिन वह योगी हर रोज की तरह राजसभा में आया . उसने राजा विक्रमादित्य को फल देना चाहा , लेकिन उन्होंने फल लेने से इंकार कर दिया . राजा बोले - ' है महात्मा , तुम मुझे हर रोज इतना धन देते हो , अब मैं तब तक तुम्हारा फल नहीं लूँगा , जब तक तुम मुझे इसका कारण नहीं बताओगे . '
राजा विक्रमादित्य की बात सुनकर योगी उन्हें एकांत में ले गया और बोला - ' राजन मुझे एक मंत्र की साधना करनी है . इसके लिए मुझे एक वीर पुरुष की सहायता (help) चाहिए . उस काम में मैं आपकी सहायता चाहता हूं .
योगी की बात सुनकर राजा विक्रमादित्य ने उसे सहायता का वचन दे दिया . तब संतुष्ट होकर योगी ने कहा - ' राजन , मैं अगले कृष्ण चतुर्थी को , यहाँ के शमशान में , बरगद के पेड़ के निचे आपका इन्तेजार करूँगा . आप वहीँ मेरे पास आयेंगे .
राजा विक्रमादित्य बोले - ' ठीक है , मैं ऐसा ही करूँगा . ' कुछ दिन बाद जब कृष्ण चतुर्थी आई , रात होने पर वह नील कपड़े पहनकर , माथे पर चन्दन लगाकर और हाथ में तलवार लेकर चोरी-छिपे राजधानी से बाहर निकल गए . चलते-चलते वे कुछ देर बाद शमशान में पहुच गए , जो योगी ने उन्हें बताया था . वहाँ भयानक गहरा अँधेरा छाया हुआ था . यह देखकर राजा विक्रमादित्य सुन्न (motionless) रह गए . शमशान में लोगों की जलने की दुर्गन्ध फैली हुई थी . अनेक जली और अधजली चिताओं की आग धधक रही थी अनेक जंगली जीव ठंडी हुई चिताओं के आस-पास घूमते हुए नरमांस को खाने की कोशिश कर रहे थे . कुछ दुरी पर गिदड़ों का विशाल झुंड हुआ-हुआ की आवाजें करता हुआ वातावरण को और भी भयभीत बना रहा था . ऐसे भयप्रद वातावरण को देखकर भी राजा विक्रमादित्य निडर होकर योगी को ढूढते-ढूढते उस बरगद के पेड़ के पास पहुँच गए , जिसके निचे वह योगी मण्डल (chamber) बना रहा था .
राजा विक्रमादित्य उनके पास जाकर बोले - ' महात्मा मैं आ गया हूं , अब बताओ मुझे क्या करना है ?
राजा विक्रमादित्य को देखकर योगी खुश होकर बोला - ' राजन , यदि आपने मुझपर कृपा की है , तो दक्षिण की ओर चले जाइए . वहाँ आपको एक बड़ा सिरस (Cirrus) का पेड़ मिलेगा . उस पर एक मरे हुए आदमी का शरीर लटक रहा है . आप उसे यहाँ ले आइए और मेरा काम पूरा कीजिए . '
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने कहा - ' महात्मा , मैं ऐसा ही करूँगा . ' यह कहकर वह दक्षिण की ओर चल पड़े . जलती हुई चिताओ के रोशनी से सहारे वे उस अंधकार में रह ढूढ़ते हुए किसी तरह उस पेड़ के पास पहुच गए . वह पेड़ चिता के धुएं से काला पड़ गया था , उससे जलते हुए मांस की गंध आ रही थी . उसकी एक डाली पर एक शव लटक रहा था . वह वह ऐसे लग रहा था मानों किसी प्रेत के कंधे पर लटक रहा हो . यह देखकर वह पेड़ पर चढ़ गए और डोरी काट दी . डोरों कटते ही शव जमीन पर गिर पड़ा . जमीन पर गिरते ही अचानक शव चीख उठा , जैसे उसे बहुत दर्द हुआ हो .
राजा विक्रमादित्य ने समझा की यह शव जीवित है . उनको उस पर दया आ गई . पेड़ से उतारकर वह उसके अंगो को सहलाने लगे . तभी वह शव जोर-जोर से हंसने लगा . राजा विक्रमादित्य ने समझ लिया कि उस पर बेताल (Discordant) चडा हुआ है . उन्होंने कहा - ' हँसते क्यों हो ? आओ मेरे साथ चलो . '
विक्रमादित्य का इतना कहना था कि बेताल शव सहित उसी पेड़ पर जा लटका . उन्होंने फिरसे पेड़ पर चड़कर शव को निचे उतारा . राजा विक्रमादित्य ने शव को कास का पकड़ा . बेताल ने बचने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे , मगर वह विक्रमादित्य की गिरफ्त से आजाद नहीं हो सका . फिर वह शव को कंधे पड़ लाद कर योगी की तरफ चल पड़े . तभी शव के अंदर से बेताल ने कहा - ' मैं जनता हु की आप अपने वादे के पक्के है . मुझे यह भी पता है कि आप मुझे ले जाकर मेरे किसी दुश्मन को जरुर सौप देंगे , लेकिन रास्ता लम्बा है और मंजिल दूर है . मुझे वहाँ तक ले जाने में आपको बहुत परिश्रम करना पड़ेगा . आपके परिश्रम को कम के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं , लेकिन मेरी एक शर्त है .
राजा विक्रमादित्य ने पूछा - ' कैसी शर्त ? '
बेताल बोला - ' कहानी सुनने के दौरान आप मौन धारण किए रहेंगे . अगर आप बेच में बोल पड़े , तो आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे और आपकी गिरफ्त से आजाद हो जाऊंगा .
शर्त सुनकर राजा विक्रमादित्य बोले - ' ठीक है बेताल , मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है . '
विक्रमादित्य से ऐसा भरोसा पाकर बेताल ने उन्हें ये कहानी सुनाई .
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