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बिना समर्पण (struggle) के साधक को पूर्ण सफलता (success) नहीं मिलती. समर्पण के पहले साधक को पांच व्याधियां - काम , क्रोध , मोह , मोह और अहंकार सदेव अपने वश में किये रहती है. इनको दूर करने के लिए साधक को सदेव गुरु महाराज जी से प्रार्थना करते रहना चाहीए. जिससे शीघ्र ही गुरु कृपा से साधक समर्पण करने की स्तिथि माँ आ सके.
इस सम्बन्ध में एक गाथा है - There is a story in this regard
एक दिन कुबेर ने सोचा कि सभी देवता (god) तो महलों में रहते है लेकिन भगवान शिव (Lord Sankar) तो पर्वत (mountain) की चोटी पर एक निर्जन (uninhabited) स्थान में वास करते है, उनके लिए शिव लोक में एक भव्य (grand) महल का निर्माण क्यों न कर दिया जाये ? अत: भगवान शिव के लिये एक भव्य महल का निर्माण (construction) कराया गया जब महल तैयार (ready) हो गया तो माँ पार्वती (Goddess Parwati), शिव जी से बोलीं कि अब आप महल में निवास (habitation) हेतु चलिए. इस पर शिवजी बोले कि निवास के पूर्व ग्रह प्रवेश तो कर लें. शिवजी बोले कि ग्रह प्रवेश की पूजा हेतु इस समय अच्छा कर्मकाण्डी ब्रह्माण्ड तो रावण ही है उसी को निमंत्रण (invite) कर लेते है. रावण भगवान शिव क शिष्य (disciple) भी है.
रावण को निमंत्रित (invited) कर ग्रह प्रवेश की पूजा सम्पन्न करायी गई. लेकिन रावण शिव का भक्त होने पर भी लोभ (cupidity) के वश में आ गया. वह महल को देखकर मन ही मन विचार (thinking) करने लगा कि यह सोने (gold) का महल तो लंका (Sri Lanka) में ही होना चाहिए. अत: रावण ने भगवान से दक्षिणा मांगी. शिव जी तो पहले से ही समझ गये थे.
बोले कि तुम्हारी जो इच्छा हो वही मांग लो. इस पर रावण बोला कि यह महल ही मुझे दे दीजिए. भगवान शिव ने कहा कि ठीक है. फिर रावण की तरफ देखकर बोले कि अगर तुम्हारी कुछ और भी इच्छा हो तो उसे भी मांग लो. इस पर रावण ' काम ' के वश में आकर बोला , इस महल में रहने के लिए पार्वती भी मुझे दे दीजिए.
हालांकि रावण तपस्वी (ascetic) था, भगवान शिव का परम भक्त (supreme devotee) भी था लेकिन ' काम व लोभ ' की जब वृत्ति (instinct) आती है तो बुद्धि नष्ट (destroyed) हो जाती है. अत: उसने माँ पार्वती को भी भगवान शिव से मांग लिया. जब रावण, महल और माँ पार्वती दोनों को, वहाँ से लेकर चल दिया.
तब माँ पार्वती ने परमपिता परमेश्वर को याद किया. वे प्रकट हुए और उन्होंने रावण से पूछा कि तुम क्या लिये जा रहे हो ? उसने कहा मैं सोने (gold) का महल तथा महल में रहने के लिए पार्वती को ले जा रहा हूं.
उस पर भगवान ने कहा कि यह पार्वती नहीं, उनकी दासी (maid) लगती है. अगर इसके शरीर से सुगंध (fragrance) आ रही है तब तो यह पार्वती है वरना उसकी दासी है. उन्होंने अपनी माया से माँ पार्वती में दुर्गन्ध (fetor) उत्पन्न कर दी. इस पर रावण ने माँ पार्वती को छोड़ दिया.
फिर परमपिता परमेश्वर (god) ने पूछा की यह महल क्यों ले जा रहे हो ? रावण बोला कि यह सोने (gold) का महल है, इसको मैं लंका (Sri Lanka) में रखूँगा. तब उन्होंने कहा कि तुम फिर धोखा (cheat) खा रहे हो यह तो लोहे (iron) का महल है और ऊपर से सोना (gold) लगा हुआ है, चाहो तो रगड़ के देख लो. उसने रगड़ के देखा और महल को छोड़कर चला गया.
इतने में शिवजी वहा आ गये और माँ पार्वती से बोले कि देखा ' लोभ ' (cupidity) का कैसा फल मिला. माँ पार्वती उनके चरणों में गिर पड़ी और बोलीं कि अब कभी लोभ नहीं करुँगी.
इसलिए काम, क्रोध (anger), लोभ और अहंकार (ego) आदि वृत्तियाँ ही हमारे दुख का करण है. इनसे बचने का एक ही उपाय है कि हम गुरु के चरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर (everything sacrifice) कर दें.
जो साधक हर समय गुरु का शरणागत रहता है वही इन वृत्तियाँ से बच पाता है. शरणागति ही ' समर्पण योग ' में परिवर्तित (changed) हो जाती है. वहाँ कुछ और नहीं रहता केवल प्रभु मय ही संसार दिखने लगता है और जीव आनन्द विभोग हो, सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है.
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि - तुम हमारी शरण (shelter) में आ जाओं मैं तुम्हे सब प्रकार से मुक्त (free) कर दूंगा. शरण में आना या समर्पण (dedicate) होना कोई आसान बात नहीं है. समर्पण दो ही प्रकार से होता है. पहला तो यह कि जब कोई जीव सम्पूर्ण चेष्टा (effort) करते-करते थक जाता है जैसे गज (elephant), जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति (total power) का प्रयोग कर थक गया था और प्राणों पर संकट देख ईश्वर से बारम्बार (again and again) रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगा.
भगवान ने उसके प्राणों की रक्षा की. दूसरी अवस्था में जब दुर्योधन की सेना के एक-एक वीर मारे जाने लगे तब उसने क्रोध (anger) में आकर भीष्म पितामह से कुछ कटु वचन (strong language) बोल दिया, भीष्म पितामह भी आवेश (huff) में आ गये और प्रतिज्ञा (pledge) कर बैठे कि कल में अर्जुन का वध (kill) अवश्य करूँगा.
उनकी इस प्रतिज्ञा को सुनकर कौरव तो प्रसन्न होने लगे और पाण्डवों में हाहाकार मच गया. भगवान श्री कृष्ण ने जब अर्जुन से इस सम्बन्ध में बताया तो अर्जुन ने कहा कि हे मधुसूधन ! हमें सब पता है. मैं आपके संरक्षण (protection) में हूं, आपके आश्रित (dependent) हूं फिर मैं किस बात की चिंता (worry) करूँ ? चिंता तो आप करेंगे.
सच है जो भगवान के आश्रित (dependent) है भगवान को उनकी रक्षा (defense) करनी ही पड़ती है. शरणागति लेने से साधक के जीवन के सम्पूर्ण भार उसके सिर से अलग हो जाते है और उस समय वह मुक्ति का ' सच्चा आनन्द ' (true joy) लेने लगते है.
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